राजनीति किस दिशा में लेकर जा रही है भारत को यह समझना आज के हालात में बेहद मुश्किल है. ऐसे समय में जब भ्रष्टाचार के विरुद्ध पूरे भारत में आन्दोलन चल रहे हैं, कांग्रेस की साख बुरी तरह गिरी है, यह सोचना विचारणीय हो जाता है कि उसके बाद भी विपक्षी दलों के मत प्रतिशत में कोई लंबा चौड़ा बदलाव नहीं दिख रहा है. बुरी तरह अंदरूनी कलह से परेशान भाजपा तो किसी भी जगह पर अपने लिए एक सर्वमान्य नेता तक नहीं तैयार कर पा रही है. जहाँ सभी सर्वेक्षण नरेंद्र भाई मोदी को भाजपा की और से सर्वदा पसंदीदा उम्मीदवार दिखा रहे हैं वहीँ भाजपा किसी भी राज्य में उन्हें लेकर जाने की भी हिम्मत नहीं कर रही है. भले ही इस समय पर यह कहना अनुचित होगा कि कौन अगला प्रधानमन्त्री होगा, पर फिर भी एक भी पार्टी यह दावा नहीं ठोक सकती कांग्रेस के अलावा कि उनका आने वाला प्रधानमन्त्री पद का दावेदार कौन होगा. जहाँ तक कांग्रेस की बात है वहां गाँधी परिवार का एक छत्र राज है. जोकि आज से नहीं अपितु पिछले साठ वर्षों से अधिक समय से है. उसके पास राहुल गाँधी के रूप में सहज उम्मीदवार है; हालांकि समूचे गाँधी परिवार में सबसे कम लोक प्रिय और सबसे कम करिश्माई नेता की उनकी छवि को तोड़ने का पार्टी भरसक प्रयास कर रही है पर वे चूँकि कहीं भी अपेक्षित सफलता अर्जित नहीं कर पा रहे हैं इसलिए उनके करिश्मे पर प्रश्न चिह्न लगना तो अवश्यम्भावी है. विपक्ष की मुसीबत उन सरकारों ने बढ़ा रखी हैं जहाँ गैर कांग्रेस सरकारें हैं. लगभग सभी ऐसे राज्यों में अगले लोकसभा चुनावों से पहले चुनाव हैं और वहां सरकार विरोधी लहर से कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर फायदा स्पष्ट रूप से होगा. जहाँ समूची कांग्रेस राहुल गाँधी के लिए लगभग एक मत है, कोई भी अन्य पार्टी किसी भी एक उम्मीदवार को लेकर एक मत नहीं बना रही है. वोटरों की चुप्पी सबका खेल अलग से बिगाड़ रही है. जहाँ अधिक मतों का प्रतिशत पहले सरकार विरोध का परिचायक माना जाता था वहीँ बिहार के चुनावों ने इस मिथक की धज्जियां उड़ा दी. राजनैतिक पार्टियाँ अपनी पूरी बुद्धि का इस्तेमाल करके भी पूरी तरह सही स्थिति नहीं बना पा रही हैं. सही मायने में इस समय यदि कोई विपक्ष है वह है माननीय न्यायालय. अपने अनेकों एतिहासिक निर्णयों के साथ पिछले दो वर्ष न्यायिक सक्रियता के लिए ऐसे ही जाने जायेंगे जैसे इमरजेंसी के समय के वर्ष जाने जाते हैं. पर न्यायालय का सरकार के ऊपर हावी होना हमारे राजनैतिक तंत्र की कमजोरी का परिचायक है क्योंकि कोई भी नीतिगत निर्णय न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना पूरा नहीं हो पा रहा है. ऐसे में जनता नेताओं के बारे में बुरा न सोचे तो क्या करे. परिवर्तन और साफ़ सुथरी सरकार के नाम पर वोट मांगती भाजपा जहाँ उत्तर प्रदेश में अपने अभियान का प्रारंभ बाबु लाल कुशवाहा से करती है वहीँ अकालियों के तथाकथित गुंडाराज के विरोध में वोट मांगती कांग्रेस पंजाब में कत्ले आम की बात करती है. एक बेहद कठिन परिस्थिति से गुजर रही भारत की राष्ट्रीय राजनीति को कोई करिश्माई नेतृत्व की पुरजोर तरकार है!
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