नमस्कार आप सब को प्रणाम,
आज एक अजीब विडम्बना से गुजर रहा हूँ. भ्रष्टाचार के विरुद्ध चल रहे राष्ट्रव्यापी अभियान की परिणति क्या होगी, ये समझने का गंभीर प्रयास सुबह से मेरे दिलोदिमाग में चल रहा है. अब जब कलम चल ही निकली है तो इसके परिणाम निकलना भी लाजमी है, निकलने भी चाहिए इसमें कुछ गलत भी क्या है. पर गंभीर समस्या ये है की अपनी भाषा में सोचना भी आज कल पाप हो चला है. मैंने तो अपने सम्पूर्ण जीवन को एक उद्देश्य की और लगा दिया है पर साथी मिलेंगे क्या? जबसे वकालत की थी मेरा दिमाग भी अंग्रेजी हो चला था. सोचकर भी न सोच पाया कि क्यूँ हम विदेशी भाषा को इतनी तवज्जो देते हैं. अगर मैं अंग्रेजी में लिखूं, इसमें पढू और इसे बोलूं तो मुझे समझदार समझा जाता है. विश्व की सबसे विलक्षण भाषा संस्कृत और उससे निकली हिंदी आदि भाषाओँ में लिखना तो जैसे पाप है. क्या ये दिमागी भ्रष्टाचार नहीं है. क्या हम खुद को धोखा नहीं दे रहे. आखिर क्यूँ अंग्रेजी लिखने और बोलने से ही इस देश में समझदार पैदा होते हैं. आखिर क्यूँ?
लगता तो यही है की हम अपनी भाषा और अपनी संस्कृति के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं. नहीं तो हमारा नाम भारत होता विश्व मानचित्र मैं न की इंडिया. जब तक ये मानसिक भ्रष्टाचार और गुलामी नहीं निकलेगी मुझे नहीं लगता कि भारत एक हो जाएगा. भ्रष्टाचार के विरुद्ध सारा देश एक हो गया है मुझे तो इसमें भी शक है. ये भारत १९४२ में एक नहीं हुआ था, २०११ में क्या होगा. लोगों ने ब्रिटिश शाषन के अंत कि आलोचना की थी, श्री अन्ना हजारे के कदम को क्या गंभीरता से लेंगे. फेसबुक नें इसमें बड़ा योगदान दिया, लीबिया, मिस्र, सीरिया आदि के बाद भारत में इसका पूरा प्रयोग हुआ. पर क्या लोग रिश्वत देना बंद कर देंगे? इस आन्दोलन में किसी को स्वामी अग्निवेश से दिक्कत थी, कोई श्री अन्ना हजारे को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का एजेंट बताने में तुला था, एक भाई तो किरण बेदी जी को ही गाली देने में तुला था की अन्ना जी भूखे हैं और किरण जी बेशर्मी से जल का पान कर रही हैं. क्या ऐसे हम भारत को जगायेंगे. स्वामी रामदेव के मंच पर आते ही तो जैसे कांग्रेस के लोगों के पेट में उबाल आ गया, कोई उन्हें ढोंगी तो कोई अन्य गाली से संबोधित कर रहा था. क्या ऐसे बदलेगा भारत.
गाँधी टोपी पहन कर जंतर मंतर पे खड़े हो कर फोटो खिंचवाने वाले लोग भारत को बदलेंगे? जो देश गाँधी को न समझ पाया वो १०० घंटे में बदल जाएगा, मुझे इसमें संदेह है. मेरे एक प्रिय मित्र हैं, जो अक्सर मुझसे झगड़ते हैं की अहिंसा से कुछ नहीं हो सकता, एक बात तो तय है की उनकी जुबान पर ताला लग गया इसके साथ ही. पर परिस्थितियाँ अभी बहुत मुश्किल हैं और लड़ाई बाकी है. ये अन्ना जी ने खुद भी कहा कि ये शुरुआत भर है. भारत को बदलाव कि जरूरत है, ये निश्चित है पर ये फैशन नहीं बदलाव होना चाहिए. तभी ये लड़ाई सार्थक होगी. अपने अन्दर भारतीय को खोजें जो कहीं अमेरिका में जाकर गम हो गया है, ये देश खुद ब खुद बदल जाएगा. सम्मान दीजिये अपनी सोच को, अपनी भाषा को, अपनी वेशभूषा को, और मेरे वे मित्र जो हिंदी में १ से सौ तक भी नहीं गिन सकते, वो ये सीख लें, भारत कि आत्मा समझ आनी प्रारंभ हो जायेगी.
अंत में एक शेर के साथ इसका समापन करता हूँ.
"चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वरना ज़माने-भर को समझाने हम कहाँ जाते
क़तील अपना मुकद्दर ग़म से बेगाना अगर होता
तो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते "
क़तील अपना मुकद्दर ग़म से बेगाना अगर होता
तो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते "
जय हिंद, जय भारत
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