Friday, June 24, 2011

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी ! /नागार्जुन

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी,
यही हुई है राय जवाहरलाल की
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहरलाल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

आओ शाही बैण्ड बजायें,
आओ बन्दनवार सजायें,
खुशियों में डूबे उतरायें,
आओ तुमको सैर करायें--
उटकमंड की, शिमला-नैनीताल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

तुम मुस्कान लुटाती आओ,
तुम वरदान लुटाती जाओ,
आओ जी चांदी के पथ पर,
आओ जी कंचन के रथ पर,
नज़र बिछी है, एक-एक दिक्पाल की
छ्टा दिखाओ गति की लय की ताल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

सैनिक तुम्हें सलामी देंगे
लोग-बाग बलि-बलि जायेंगे
दॄग-दॄग में खुशियां छ्लकेंगी
ओसों में दूबें झलकेंगी
प्रणति मिलेगी नये राष्ट्र के भाल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

बेबस-बेसुध, सूखे-रुखडे़,
हम ठहरे तिनकों के टुकडे़,
टहनी हो तुम भारी-भरकम डाल की
खोज खबर तो लो अपने भक्तों के खास महाल की !
लो कपूर की लपट
आरती लो सोने की थाल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

भूखी भारत-माता के सूखे हाथों को चूम लो
प्रेसिडेन्ट की लंच-डिनर में स्वाद बदल लो, झूम लो
पद्म-भूषणों, भारत-रत्नों से उनके उद्गार लो
पार्लमेण्ट के प्रतिनिधियों से आदर लो, सत्कार लो
मिनिस्टरों से शेकहैण्ड लो, जनता से जयकार लो
दायें-बायें खडे हज़ारी आफ़िसरों से प्यार लो
धनकुबेर उत्सुक दीखेंगे उनके ज़रा दुलार लो
होंठों को कम्पित कर लो, रह-रह के कनखी मार लो
बिजली की यह दीपमालिका फिर-फिर इसे निहार लो

यह तो नयी नयी दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
एक बात कह दूं मलका, थोडी-सी लाज उधार लो
बापू को मत छेडो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की !
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहरलाल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !



...नागार्जुन

Wednesday, June 15, 2011

मेरे भारत का मशहूर तमाशा.

मेरे भारत का मशहूर तमाशा.

मेरे भारत में कुछ ख़ास है,
प्याज से सरकार बदलती है, दंगों से सरकार बनती है,
नौकरी का फैंसला पैदा होने पर होता है,
लिंग का फैंसला पैदा होने से पहले होता है,
गरीब की तकदीर में तो बहुत कुछ ख़ास है,
पहले हाथ जुड्वाता है बाद में हाथ जोड़ता है.
मेरे भारत में कुछ ख़ास है.

जनता यहाँ गाली देती है पर कुछ बदलती नहीं,
एक धर्म को गाली देना यहाँ धर्मनिरपेक्षता है,
अंग्रेजी बोलने को लोग बड़ा मानते हैं,
पर १२ कोस पर यहाँ बोली बदलती है,
हर प्रदेश की अपनी वेश भूषा है,
किस्मत फिर भी पेंट-कोट से बदला करती है.

मेरे भारत में कुछ ख़ास है,
यहाँ तकदीरें पुरुषार्थ से नहीं जुगाड़ों से बदला करती है.

---रविन्द्र सिंह ढुल, जींद, दिनांक: १५-०६-२०११ 

मैं क्यों खड़ा हूँ?

मैं क्यों खड़ा हूँ?

भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन में आम आदमी क्यों खड़ा रहा? यह प्रश्न अब आम हो गया है. एक छोटी सी कविता इस बात को लेकर मैंने रची है. 

समाचारों में देख कर चुन्नी लाल जी एक दिन जा पंहुचे धरने पर,
उन्हें देख पड़ोस के नेता जी परेशान,
पुछा तुम क्या करोगे चुन्नी लाल?
तुम न तो सामजिक कार्यकर्ता हो,
तुम न ही कोई सर्वमान्य नेता हो,
तुम्हारी गर कोई परेशानी है तो कह डालो,
अनशन धरने पर बैठ अपने ऊपर बोझ न डालो.

क्या तुम्हें किसी ने सरकार के विरुद्ध खड़ा किया है,
लगता है है विपक्ष ने तुम्हारा इस्तेमाल किया है,
मेरी बात मानो अपने घर को जाओ,
राजनीति नेताओं का काम होती है,
आपके लिए नहीं.

अब तक ठठक से गए चुन्नी लाल जी सोचने लगे,
क्या मैं इस देश में चलने लायक हूँ?
क्या मैं इस देश के अन्दर कुछ बोलने लायक हूँ?
क्या इस देश में अपनी आवाज उठाना राजनीति है?
क्या मैं राजनीति करने लायक हूँ?

तभी भीतर से आवाज आई,
चुन्नी लाल....!
तुम एक आम आदमी हो, 
आम आदमी, तुम्हारे मत से नेता बनेंगे,
आगे जाके तुम्हारा खून पियेंगे,
फिर कहेंगे तुम्हें अधिकार कहाँ कानून तोड़ने का,
फिर हवालात में जाने से अच्छा अपने घर जाओ और भारत का मशहूर तमाशा देखो,
जहाँ आम आदमी की बातें तो होती हैं, पर उसकी सुने बिना.

---रविन्द्र सिंह ढुल, जींद, दिनांक: १५-०६-२०११ 

Tuesday, June 14, 2011

मेरी जाति "आम आदमी" है.

मेरी जाति "आम आदमी" है.

सड़क पर फटे हाल एक पुरुष को खड़ा देख,नेता जी रुके,
उनसे पूछा,
तुम कौन हो भाई,
बड़े गरीब और पिछड़े हुए लगते हो,
कितने पढ़े लिखे हो, क्या करते हो,
परिवार में कौन कौन है, क्या क्या करता है,

तुम गरीबी रेखा से नीचे हो?
अगर हो तो तुम्हें चावल मिलेगा, तेल मिलेगा घर मिलेगा,
तुम पिछड़ी जाति के हो, अगर हो तो तुम्हें छात्रवृति मिलेगी,
नौकरी मिलेगी, प्रोत्साहन मिलेगा,

तुम अनुसूचित जाति के हो?
अगर हो तो तुम्हें सरकार नौकरी देगी, बच्चों को पढ़ाएगी,
सब कुछ तुम्हें मुफ्त मिलेगा, तुम बोलो भाई तुम कौन हो?

तुम महिला होते तो तुम्हें अलग से खड़े होने का मौका मिलता,
आरक्षण मिलता, सब कुछ मिलता, पर तुम कुछ बोलते नहीं, कुछ बोलो!

इतनी देर से परेशान वो पुरुष बोला,
नेता जी,
बड़ा दुःख है मुझे कि मैं इनमें से कुछ नहीं,
पर आप समझ पायेंगे ही नहीं मैं क्या हूँ,
भारत की सभी सरकारें मेरे नाम से मत लेती हैं,
मेरा नाम हर घोषणा पत्र में होता है, मेरे नाम से सब आगे बढ़ते हैं,
आपने भी कभी न कभी मेरी जाति का नाम जरूर सुना होगा,
पर दुःख है कि यहाँ मुझे पूछने वाला कोई नहीं,
मैं भूखा हूँ, अनाज नहीं मिलता,
मेरे बच्चे पढना चाहते हैं पर उन्हें दाखिला नहीं मिलता,
मैं पढ़ा लिखा हूँ, मुझे काम नहीं मिलता,
रहने को छत नहीं, पर मुझे घर नहीं मिलता.

नेता जी हैरान परेशान देखते रहे,
वो पुरुष बोलता रहा,

नेता जी मेरी जाति"आम आदमी"  है,
इस देश में सबको सब कुछ मिलता है,
पर मुझे कोई नहीं पूछता,
हर चुनाव में मैं मत का प्रयोग करता हूँ,
मेरे मत से सरकार बदलती है,
पर मैं पचास साल पहले भी भूखा था,
आज भी हूँ.

मैं आम आदमी हूँ, 
क्या आप मेरी सहायता करेंगे?

नेता जी अनमना सा मूंह लेकर अपनी गाडी में चले गए,
और आम आदमी अगले नेता जी कि गाडी का इंतज़ार करने लगा.

-----रविन्द्र सिंह ढुल, १४-०६-२०११, जींद  


सरकार और आम आदमी...

मैं खड़ा हूँ,
मेरा अंतर्द्वंद मुझे जीने न दे रहा है,
जब सारा भारत खड़ा है तो मैं क्यों सो रहा हूँ?
ऐसा सोच आम आदमी एक दिन सारे भारत के साथ धरने पर बैठ गया,
सुबह पत्रकारों ने आम आदमी को नेता घोषित किया,
दोपहर आम आदमी को भारत का भविष्य घोषित किया,

शाम आई और आम आदमी ने बैठकर सोचा,
मेरी सरकार शायद आम आदमी की सरकार है,
मेरे दुःख से शायद किसी को सरोकार है,
जब-जब मैंने उठना चाहा, बाँध हाथ बिठा दिया,
जब-जब मैंने उड़ना चाह, बाँध पंख बिठा दिया,
शायद वह पुरानी यादें, अब बस यादें हैं.
इसी उधेड़ बुन में वह आम आदमी, सो गया.

उठ सुबह जब हुआ नया सवेरा,
प्रभात की किरणों ने आम आदमी का चेहरा जगमगाया,
आम आदमी ने खुद को सड़क पर पाया,
न पेट में अनाज, न तन पर कोई कपडा,
कहाँ गया जो मेरे पास था मेरा रैन बसेरा,

टूटा दिवा स्वप्न तो उसे याद आया,
कल था चुनाव, आम आदमी राजा था,
आज है आम आदमी की नयी सरकार,
और आम आदमी फिर से हाथ बाँध कर नए सवेरे को याद कर रहा है.

"सोच सोच कर मैंने सरकार बनायीं, पर फिर भी इतनी अक्ल मुझे न आई,
सरकार आम आदमी के लिए नहीं, सरकार आम आदमी से बनती है.
कार्य तब भी वह अपने लिए करती थी, कार्य अब भी वह अपने लिए ही करती है."

-रविन्द्र सिंह ढुल/२५.१२.२०११





Sunday, June 12, 2011

एक आम आदमी का गुनाह!!

एक आम आदमी का गुनाह!!

सड़क पर चलते एक आम आदमी को पुलिस ने पकड़ लिया. यह छोटी सी कविता उस आम आदमी और पुलिस की वार्ता का दृष्टान्त है. इसकी रचना मैंने खुद की है. 

सड़क पर चलते उस आदमी को पुलिस ने पकड़ लिया,
उन्हें हवालात में बिठाया गया,
तुम क्यों आये पूछा बराबर वाले कैदी ने,
जवाब मिला पता नहीं. 

उन्होंने दूसरे कैदी से पूछा,
तुम क्यों आये भाई हवालात में,
शकल से तो तुम भी शरीफ लगते हो?
ऐसा क्या किया जो यहाँ बैठे हो.

मैं तो बिजली का बिल समय पर भरता हूँ,
राशन के लिए पंक्ति में सबसे पीछे खड़ा होता हूँ,
बस में जाते हुए खड़ा होकर सफ़र करता हूँ,
नौकरी करते २० साल हुए पर मेरे अफसर को मेरा नाम नहीं पता,
भ्रष्टाचार मैं करता नहीं, किसी अबला का अपमान मैं करता नहीं,
तुम बताओ भाई तुम्हें क्या हुआ?

भाई मेरी भी यही गाथा है,
पर मेरी गाथा में अलग ये है की मेरे पास नौकरी नहीं है,
अपने माता पिता की सेवा करता हूँ,
नौकरी के लिए पंक्तियों में लगता हूँ,
मैं तो नौकरी के लिए किसी नेता के पास नहीं जाता,
कभी किसी को पैसा नहीं खिलाता,
तो फिर मैं यहाँ क्यों?

पास में खड़ा पुलिस अफसर जो ये सब सुन रहा था,
बोला-
भाई सड़क पे तो तुम दोनों सही थे,
महंगाई की मार से तुम दोनों त्रस्त हो,
कभी पुलिस स्टेशन देखा नहीं,
कभी बेईमानी की नहीं,
पर फिर भी मुझे तुम्हें पकड़ना पड़ा,
क्योंकि तुम एक आम आदमी हो,
और आम आदमी होना भारत में गुनाह है.

दोनों व्यक्ति दंग , एक दूसरे को देखते रह गए,
पुलिस वाला बोला,
भाई अगर तुम वो सब करलेते,
तो तुम यहाँ शासन करते और......
और.....
कोई और आम आदमी अन्दर होता,
तुम नहीं.....!!!

-रविन्द्र सिंह, दिनांक १२-०६-२०११, जींद 

Monday, June 6, 2011

क्रांति की आवश्यकता

क्या हम क्रांति की और बढ़ रहे हैं? ये प्रश्न आज सभी भारतियों के मन में कौंध रहा होगा शायद. सभी के बारे में तो कहना मुश्किल है पर मैं अवश्य यह सोच कर परेशान हूँ कि क्या भारत क्रांति की और बढ़ रहा है? पिछले दो वर्ष के घटना क्रम के बारे में जरा सोचिये. २००९ में जब कांग्रेस ने केंद्र में दोबारा सरकार बनाई थी तो उनके पास किसानो के कर्ज माफ़ करना, सुचना का अधिकार, नरेगा और कई ऐसी उपलब्धियां थी कि प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह के साथ सारी कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज थी. २०११ आते आते भारत कि राजनीति और उसके सभी मायने बदल गए हैं. गली चौपालों में केंद्र की सरकारों के बारे में शायद ही कभी कोई जिक्र होता था, इसका महत्वपूर्ण कारण ये है कि आम जनमानस को अधिकतर राज्य सरकारों से अधिक सरोकार होता है. कांग्रेस इसी कारण भारत में अधिक समय तक राज कर पायी है. भारत के स्वतंत्र होने पर देश में विपक्ष था ही नहीं इसलिए १९४७ से १९६७ तक नेहरु जी ने राज किया. उनकी मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी ने राज किया जो सार्वजनिक जीवन में सादगी और इमानदारी की मिसाल थे. यहाँ तक भ्रष्टाचार था तो सही पर आम जनता को उस से कम ही फर्क पड़ता था क्योंकि छोटी मोती दलाली करके नेता और बिचोलिये कमा लेते थे. सार्वजनिक जीवन में सच्चाई की कीमत थी क्योंकि गाँधी जी के आदर्श अभी जीवित थे, लोगों के कार्य अधिकतर सार्वजनिक हुआ करते थे क्योंकि अधिक भारतीय ग्रामों में रहते थे, ग्रामीण जीवन में सांझे कार्यों की कीमत थी और नेता कुछ सार्वजनिक कार्य करके अपनी राजनीति को आगे बढ़ाते थे. बाद में आई श्रीमती इंदिरा गाँधी की सरकार, इंदिरा जी जो की भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री की पुत्री थी, उनमें लोगों को क्रांति की परछाई दिखती थी. उनके समय तक भ्रष्टाचार भारत के सार्वजनिक जीवन में अपने पैर पसार चूका था. श्री जय प्रकाश नारायण की क्रांति बिहार से शुरू होकर भारत में फ़ैल रही थी. तभी आया १९७५ जब भ्रष्ट तरीकों का प्रयोग करके चुनाव जीतने पर इंदिरा जी के चुनाव को इलाहबाद उच्च न्यायलय ने रद्द कर दिया ( राज नारायण बनाम इंदिरा गाँधी ). अब आया भ्रष्टाचार का युग भारत में, अपने चुनाव के रद्द होने से इंदिरा जी इतनी व्यथित हो गयी की उन्होंने भारत में आपातकाल की घोषणा कर दी. इसे समस्त भारत जानता है की आपातकाल की उस समय भारत को कितनी जरुरत थी. भारत पिछड़ गया और सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया पर तब तक श्री जय प्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति बहुत फ़ैल चुकी थी और आने वाले चुनावों में सबसे पहले सत्ता परिवर्तन हुआ और सत्ता कांग्रेस के हाथ से निकल कर जनता दल के हाथ में जा पंहुची. जनता दल की लहर ने भारत के राजनितिक परिद्रश्य को बदल कर रख दिया और विभिन्न प्रदेशों में कई महत्वपूर्ण गैर कांग्रेस नेता पैदा हुए जैसे बिहार में लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, नितीश कुमार आदि, हरियाणा में चौधरी देवी लाल, उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह आदि. भारत की सत्ता पहली बार ३५ वर्षों में कांग्रेस के हाथ से निकली. यहाँ राजनीति में कई गंभीर अपराध हुए, पंजाब में अकाली दल के वर्चस्व को कम करने के लिए इंदिरा ने जरनैल सिंह भिंडरावाला को शह दी और उसने अपने पंख पसारते हुए पंजाब को गंभीर आतंकवाद में घेर दिया. हजारों जानें जाने के बाद राजनीति के एक गंभीर फैंसले को लेते हुए इंदिरा ने ऑपरेशन ब्लू स्टार में भिंडरावाला को श्री हरमंदिर साहिब में फ़ौज को घुसा कर मार दिया. उसे शहीद का दर्जा देते हुए इंदिरा जी के गन मैन ने उनकी हत्या कर दी. फिर आया राजनीति का एक गंभीर अपराध और सिखों के विरुद्ध दंगों में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने दिल्ली और हरियाणा में हजारों मासूमों की जान ले ली. भारत की आजादी के बाद भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लड़ी, उनकी लड़ाई का प्रमुख केंद्र बोफोर्स घोटाला था जिसमे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी पर आरोप लगे और भारत में सत्ता बदल गई. पर एक और राजनितिक रूप से गलत निर्णय ने इंदिरा जी के बाद उनके पुत्र की भी जान लेली. फिर हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस और मुंबई दंगों जैसे बुरे घटनाक्रम जोकि काले अध्याय हैं. १९९६ से १९९९ का काल भारत का सबसे अस्थिर राजनितिक काल रहा और आया राम गया राम राजनीति में भारत ने ३ प्रधानमन्त्री देखे. १९९९ से २००४ का कार्यकाल भारतीय जनता पार्टी के नाम रहा जो श्री अटल बिहारी वाजपाई के नेत्रित्व में आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ी पर प्याज के आंसू रोती हुई इस सरकार ने २००४ में इंडिया शाइनिंग के नारे के बीच घुटने टेक दिए क्योंकि इस बीच गोधरा के नरसंहार के विरोधस्वरूप हुए दंगों ने हजारों की जान लेली और उसका सीधा फल केंद्र में भाजपा को भोगना पड़ा, पर वोट के नुक्सान में नहीं पर कुछ पार्टियों के पीछे हटने से जो धर्मनिरपेक्ष होने का दंभ भरती हैं. यहाँ धरमनिर्पेक्षता की परिभाषा कोई नहीं जानता, धरमनिर्पेक्षता जोकि भारत के संविधान के मूल में है ( केशवनंदा भारती बनाम केरल ) इसका मतलब सभी धर्मों के प्रति सौहार्द है न कि मुख्य धरम के प्रति विमुखता. भारत में इसके मायने इन पार्टियों के लिए सिर्फ इतनी है कि हिन्दू धर्म की सभी गतिविधियों का विरोध करो और वोट लो. 

अब बताइए क्या यह जायज है, खैर हम अपने वास्तविक मुद्दे पर आते हैं, क्या भारत क्रांति की और बढ़ रहा है, श्री रामदेव और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन को देखे तो लगता है कि हाँ. जनमानस खड़ा हो रहा है और हर भारतीय आन्दोलन कि तरह बहुत सा जन समूह इसका विरोध कर रहा है. अभी तक तो मुझे पूरा विश्वास नहीं था पर कांग्रेस के ४ जून कि रात्री के किये दमन ने इसे हवा जरुर दे दी है और भारत अपने सबसे बड़े आंदोलनों में से एक कि और बढ़ रहा है. पर हर आन्दोलन का एक नेता तो होता ही है, बिना नेता की क्रांति कितनी भी बड़ी क्यों न हो सफल नहीं हो सकती, १८५७ की भारत की क्रांति इसका उदाहरण है, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, मंगल पण्डे आदि अनेक वीरों के होने के बावजूद भी क्रांति असफल रही. 

प्रश्न यहाँ पैदा होता है, कहाँ है इस क्रांति का नेता? नेता वैसे तो भारत में पैदा होते नहीं जिनका जमीर पवित्र हो, और अगर कोई आ भी जाए तो उसका दमन कर दिया जाता है, जैसा ४ जून को भारत में हुआ. अब यह प्रश्न मैं आप पर छोड़ता हूँ, कहाँ है क्रांति का नेता जो भारत के जन मानुष को खड़ा कर सके. कांग्रेस का पतन फिर से निश्चित है, पर भारत पर राज कौन करेगा सुषमा जी या जेटली जी जिनकी आपस की लड़ाई का अक्सर उपहास बनता है. नरेंद्र मोदी जी, जिन्हें दुसरे राज्यों की सरकारें प्रचार तक नहीं करने देती, नितीश जी एक सर्व मान्य नेता हो सकते हैं पर उनकी पार्टी इतनी बड़ी नहीं है की भारत में अपना परचम लहरा सके. कौन होगा नेता? कौन बदलेगा भारत को और उसे एक परिवार के राज से मुक्ति दिलवाएगा जिसका एक युवराज बैठक में बैठकर राजनीति सीख रहा है. भारत पर ९० प्रतिशत समय राज करने वाले इस परिवार से कोई पूछे तो भारत के इस हाल का जिम्मेदार कौन है? 

क्रांति हो या न हो पर भारत को इसकी आवश्यकता जरूर है. पर जरूरी है परस्पर भेदभावों को छोड़ कर एक सर्व मान्य नेता चुनना और भारत को लज्जित करने वाले और घटनाक्रमों से बचाना जिनकी भरमार है पिछले २ साल.

---रविन्द्र सिंह ढुल