क्या हम क्रांति की और बढ़ रहे हैं? ये प्रश्न आज सभी भारतियों के मन में कौंध रहा होगा शायद. सभी के बारे में तो कहना मुश्किल है पर मैं अवश्य यह सोच कर परेशान हूँ कि क्या भारत क्रांति की और बढ़ रहा है? पिछले दो वर्ष के घटना क्रम के बारे में जरा सोचिये. २००९ में जब कांग्रेस ने केंद्र में दोबारा सरकार बनाई थी तो उनके पास किसानो के कर्ज माफ़ करना, सुचना का अधिकार, नरेगा और कई ऐसी उपलब्धियां थी कि प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह के साथ सारी कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज थी. २०११ आते आते भारत कि राजनीति और उसके सभी मायने बदल गए हैं. गली चौपालों में केंद्र की सरकारों के बारे में शायद ही कभी कोई जिक्र होता था, इसका महत्वपूर्ण कारण ये है कि आम जनमानस को अधिकतर राज्य सरकारों से अधिक सरोकार होता है. कांग्रेस इसी कारण भारत में अधिक समय तक राज कर पायी है. भारत के स्वतंत्र होने पर देश में विपक्ष था ही नहीं इसलिए १९४७ से १९६७ तक नेहरु जी ने राज किया. उनकी मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी ने राज किया जो सार्वजनिक जीवन में सादगी और इमानदारी की मिसाल थे. यहाँ तक भ्रष्टाचार था तो सही पर आम जनता को उस से कम ही फर्क पड़ता था क्योंकि छोटी मोती दलाली करके नेता और बिचोलिये कमा लेते थे. सार्वजनिक जीवन में सच्चाई की कीमत थी क्योंकि गाँधी जी के आदर्श अभी जीवित थे, लोगों के कार्य अधिकतर सार्वजनिक हुआ करते थे क्योंकि अधिक भारतीय ग्रामों में रहते थे, ग्रामीण जीवन में सांझे कार्यों की कीमत थी और नेता कुछ सार्वजनिक कार्य करके अपनी राजनीति को आगे बढ़ाते थे. बाद में आई श्रीमती इंदिरा गाँधी की सरकार, इंदिरा जी जो की भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री की पुत्री थी, उनमें लोगों को क्रांति की परछाई दिखती थी. उनके समय तक भ्रष्टाचार भारत के सार्वजनिक जीवन में अपने पैर पसार चूका था. श्री जय प्रकाश नारायण की क्रांति बिहार से शुरू होकर भारत में फ़ैल रही थी. तभी आया १९७५ जब भ्रष्ट तरीकों का प्रयोग करके चुनाव जीतने पर इंदिरा जी के चुनाव को इलाहबाद उच्च न्यायलय ने रद्द कर दिया ( राज नारायण बनाम इंदिरा गाँधी ). अब आया भ्रष्टाचार का युग भारत में, अपने चुनाव के रद्द होने से इंदिरा जी इतनी व्यथित हो गयी की उन्होंने भारत में आपातकाल की घोषणा कर दी. इसे समस्त भारत जानता है की आपातकाल की उस समय भारत को कितनी जरुरत थी. भारत पिछड़ गया और सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया पर तब तक श्री जय प्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति बहुत फ़ैल चुकी थी और आने वाले चुनावों में सबसे पहले सत्ता परिवर्तन हुआ और सत्ता कांग्रेस के हाथ से निकल कर जनता दल के हाथ में जा पंहुची. जनता दल की लहर ने भारत के राजनितिक परिद्रश्य को बदल कर रख दिया और विभिन्न प्रदेशों में कई महत्वपूर्ण गैर कांग्रेस नेता पैदा हुए जैसे बिहार में लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, नितीश कुमार आदि, हरियाणा में चौधरी देवी लाल, उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह आदि. भारत की सत्ता पहली बार ३५ वर्षों में कांग्रेस के हाथ से निकली. यहाँ राजनीति में कई गंभीर अपराध हुए, पंजाब में अकाली दल के वर्चस्व को कम करने के लिए इंदिरा ने जरनैल सिंह भिंडरावाला को शह दी और उसने अपने पंख पसारते हुए पंजाब को गंभीर आतंकवाद में घेर दिया. हजारों जानें जाने के बाद राजनीति के एक गंभीर फैंसले को लेते हुए इंदिरा ने ऑपरेशन ब्लू स्टार में भिंडरावाला को श्री हरमंदिर साहिब में फ़ौज को घुसा कर मार दिया. उसे शहीद का दर्जा देते हुए इंदिरा जी के गन मैन ने उनकी हत्या कर दी. फिर आया राजनीति का एक गंभीर अपराध और सिखों के विरुद्ध दंगों में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने दिल्ली और हरियाणा में हजारों मासूमों की जान ले ली. भारत की आजादी के बाद भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लड़ी, उनकी लड़ाई का प्रमुख केंद्र बोफोर्स घोटाला था जिसमे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी पर आरोप लगे और भारत में सत्ता बदल गई. पर एक और राजनितिक रूप से गलत निर्णय ने इंदिरा जी के बाद उनके पुत्र की भी जान लेली. फिर हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस और मुंबई दंगों जैसे बुरे घटनाक्रम जोकि काले अध्याय हैं. १९९६ से १९९९ का काल भारत का सबसे अस्थिर राजनितिक काल रहा और आया राम गया राम राजनीति में भारत ने ३ प्रधानमन्त्री देखे. १९९९ से २००४ का कार्यकाल भारतीय जनता पार्टी के नाम रहा जो श्री अटल बिहारी वाजपाई के नेत्रित्व में आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ी पर प्याज के आंसू रोती हुई इस सरकार ने २००४ में इंडिया शाइनिंग के नारे के बीच घुटने टेक दिए क्योंकि इस बीच गोधरा के नरसंहार के विरोधस्वरूप हुए दंगों ने हजारों की जान लेली और उसका सीधा फल केंद्र में भाजपा को भोगना पड़ा, पर वोट के नुक्सान में नहीं पर कुछ पार्टियों के पीछे हटने से जो धर्मनिरपेक्ष होने का दंभ भरती हैं. यहाँ धरमनिर्पेक्षता की परिभाषा कोई नहीं जानता, धरमनिर्पेक्षता जोकि भारत के संविधान के मूल में है ( केशवनंदा भारती बनाम केरल ) इसका मतलब सभी धर्मों के प्रति सौहार्द है न कि मुख्य धरम के प्रति विमुखता. भारत में इसके मायने इन पार्टियों के लिए सिर्फ इतनी है कि हिन्दू धर्म की सभी गतिविधियों का विरोध करो और वोट लो.
अब बताइए क्या यह जायज है, खैर हम अपने वास्तविक मुद्दे पर आते हैं, क्या भारत क्रांति की और बढ़ रहा है, श्री रामदेव और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन को देखे तो लगता है कि हाँ. जनमानस खड़ा हो रहा है और हर भारतीय आन्दोलन कि तरह बहुत सा जन समूह इसका विरोध कर रहा है. अभी तक तो मुझे पूरा विश्वास नहीं था पर कांग्रेस के ४ जून कि रात्री के किये दमन ने इसे हवा जरुर दे दी है और भारत अपने सबसे बड़े आंदोलनों में से एक कि और बढ़ रहा है. पर हर आन्दोलन का एक नेता तो होता ही है, बिना नेता की क्रांति कितनी भी बड़ी क्यों न हो सफल नहीं हो सकती, १८५७ की भारत की क्रांति इसका उदाहरण है, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, मंगल पण्डे आदि अनेक वीरों के होने के बावजूद भी क्रांति असफल रही.
प्रश्न यहाँ पैदा होता है, कहाँ है इस क्रांति का नेता? नेता वैसे तो भारत में पैदा होते नहीं जिनका जमीर पवित्र हो, और अगर कोई आ भी जाए तो उसका दमन कर दिया जाता है, जैसा ४ जून को भारत में हुआ. अब यह प्रश्न मैं आप पर छोड़ता हूँ, कहाँ है क्रांति का नेता जो भारत के जन मानुष को खड़ा कर सके. कांग्रेस का पतन फिर से निश्चित है, पर भारत पर राज कौन करेगा सुषमा जी या जेटली जी जिनकी आपस की लड़ाई का अक्सर उपहास बनता है. नरेंद्र मोदी जी, जिन्हें दुसरे राज्यों की सरकारें प्रचार तक नहीं करने देती, नितीश जी एक सर्व मान्य नेता हो सकते हैं पर उनकी पार्टी इतनी बड़ी नहीं है की भारत में अपना परचम लहरा सके. कौन होगा नेता? कौन बदलेगा भारत को और उसे एक परिवार के राज से मुक्ति दिलवाएगा जिसका एक युवराज बैठक में बैठकर राजनीति सीख रहा है. भारत पर ९० प्रतिशत समय राज करने वाले इस परिवार से कोई पूछे तो भारत के इस हाल का जिम्मेदार कौन है?
क्रांति हो या न हो पर भारत को इसकी आवश्यकता जरूर है. पर जरूरी है परस्पर भेदभावों को छोड़ कर एक सर्व मान्य नेता चुनना और भारत को लज्जित करने वाले और घटनाक्रमों से बचाना जिनकी भरमार है पिछले २ साल.
---रविन्द्र सिंह ढुल
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